मैं जब भी देखूँ दर्पण में,
कुछ बदल रहा मेरे आँगन में।
ये स्वरूप मेरा है या रूप तेरा,
मैं सोच रही मन ही मन में।।
चादर की सफेदी में अपने,
है लगा मुझे भी तू ढकने।
एक परत चढ़ी मेरे तन में,
कुछ बदल रहा मेरे आँगन में।।
है धुआँ धुआँ फैला नभ में,
आंधी है खड़ी सागर तट पे।
न नियंत्रण है अब किसी कण में,
कुछ बदल रहा मेरे आँगन में।।
आकृतियों से सज्जित प्रांगण है,
विकृतियाँ भी मनभावन हैं।
परिवर्तन है अंतर्मन में,
कुछ बदल रहा मेरे आँगन में।।
February 13, 2018 at 12:37 pm
मैं जब भी देखूँ दर्पण में,
कुछ बदल रहा मेरे आँगन में।
ये स्वरूप मेरा है या रूप तेरा,
मैं सोच रही मन ही मन में।।
waah kya khub likha hai….bahut khub.