Ganges, you were there Yamuna, you were there My being shattered They left me battered Bleeding and bare While they prepare To enclose me in a sheath While I cannot breathe.
Color of my skin Pocket as thin I gasp for last breath They cost me my death And no human dares While they prepare To enclose me in a sheath While I cannot breathe.
No difference it makes My life stays on stakes Took my oxygen Replaced it with election They say, they care While they prepare To enclose me in a sheath While I cannot breathe.
Months, they waited Till my color faded They rallied around me With pledges they bound me Of tears that they share While they prepare To enclose me in a sheath While I cannot breathe.
(Photo by Piero CRUCIATTI / AFP) (Photo by PIERO CRUCIATTI/AFP via Getty Images)
मेरा नाम शायद आपको पता नहीं होगा,
जहां अस्पताल मिले मेरा पता वहीं होगा।
केस नंबर २०४१ पुकारता हर कोई है,
जाति और धर्म का संज्ञान ना कोई है।
परिवार जन को हफ्तों में नहीं देखा है,
जैसे खिंची हमारे बीच लक्ष्मण की रेखा है।
अब वो मुझसे मिलने नहीं आते हैं,
बस फोन से ही हाल चाल पूछ जाते हैं।
पति भी मुझे देख कर मुंह ढक लेता है,
६ फीट की दूरी की हर बार सबक देता है।
डॉक्टर्स और नर्सेस भी मुझसे कतराते हैं,
मेरी हर सांस पर मुझसे दूर हो जाते हैं।
सहकर्मी मुझसे भयभीत से दिखते हैं,
नर्स से ही हाल जान कर निकल लेते हैं।
मेरी हर वस्तु, लोग सचेत हो छूते हैं,
अब तो लोग मेरे परिवेश से भी रूठे हैं।
आज मेरा हर रिश्ता अमान्य हो गया है,
मेरा अस्तित्व भी मुझसे अनजान हो गया है।
मृत्यु के बाद भी में अछूत ही मानी जाऊंगी,
अंतिम झलक के भी अयोग्य बन जाऊंगी।
संभवतः कोई मेरी राख तक ना उठाएगा,
हाय! ये बीमारी सद्भाव भी खा जायेगा।
जीवित होते हुए भी मेरा जीवन निर्जीव है,
क्यूंकि मेरा शरीर कोरोना पॉज़िटिव है।
He groomed it with wonders of love and spades,
It bloomed, it flowered with yellow as shades.
It was loved, it flourished
It glowed, it was cherished.
It passed, it swayed, from hand to hand
Flaunting its beauty, with whispers of demand.
And now, fractured, it lies, in a corner
Spine fragmented and no beauty armour.
Ephemeral was fragrance, scattered is softness
Breathing the last, aloof and thoughtless
It wilted in water, unuttered, astray
It bloomed, it flourished, it lived for a day.
भूल जाओ मुझे,
क्यूँ मेरे लाश को बार बार जगाते हो?
क्यूँ मेरे अंत पर तुम प्रश्न चिन्ह लगाते हो?
मेरे साथ ही तो उस सभ्यता का अंत हो गया था
फिर क्यूँ उन कहानियों को तुम हर बार दोहराते हो?
क्यूँ मेरे अंत पर तुम प्रश्न चिन्ह लगाते हो?
भूल जाओ मुझे,
मैं बस एक अतीत का टुकड़ा ही तो हूँ
जिससे भाग्य रूठा था वो एक मुखड़ा ही तो हूँ
फिर क्यूँ मेरे स्वामित्व का स्वांग लगाते हो?
क्यूँ मेरे अंत पर तुम प्रश्न चिन्ह लगाते हो?
भूल जाओ मुझे,
चमकता हुआ मेरा वो चरम डूब चूका है
प्रसिद्धि का हर राग मुझसे ऊब चूका है
फिर क्यूँ सूरज और चाँद से मुझे सजाते हो?
क्यूँ मेरे अंत पर तुम प्रश्न चिन्ह लगाते हो?
भूल जाओ मुझे,
कि अब मुझे चैन से सोने दो
किस्सों की परतों में अब मुझे खोने दो
क्यूँ लड़-लड़ के मेरी रूह को डराते हो?
क्यूँ मेरे अंत पर तुम प्रश्न चिन्ह लगाते हो?
(सन्दर्भ : उन सभी स्मारकों की ओर से जिनके नाम पर इंसान आपस में लड़ाई करते आ रहे हैं। )
शब्दों ने क्यूँ आज न जाने
भुरभुरा सा एक रूप धरा है,
सुबह से कमरे के कोने में
उन्होंने सबको घेर रखा है,
अंतहीन नभ में उड़ने का
हठ ऐसा मन में पकड़ा है,
आज अनुपम कुछ करने का
दृढ़ निश्चय किया पक्का है।
कहते हैं मुझसे कि एक
बच्चे की है स्वप्न से बनना,
जो पक्षियों के पैरों में
छुपकर घोंसले बना लेते हैं।
कहते हैं मुझसे कि एक
थिरकती लौ की आस सा बनना,
जो उजड़ती साँसों को भी
हौसला देकर जगा देते हैं।
कविताओं के छंद बना जब
पतंग सा मैंने उड़ाना चाहा,
तो इनमें से कुछ आप ही
बिखर गए धागे से खुलकर।
पद्य के रस में पीस कर जब
इत्र से मैंने फैलाना चाहा,
तो इनमें से कुछ स्वयं ही
लुप्त हुए बादल में घुलकर।
अब उन्हें न ही किसी श्लोक
न किसी आयत में बंद होना है,
अब उन्हें अपनी उपयुक्तता की
परिभाषा नई गढ़ना है,
संचार के जो टूटे तार हैं
पुनः संलग्न उन्हें करना है,
शायद, उन्हें द्वेष पर फिर से
प्रेम का टूटा रत्न जड़ना है।।
शब्द तो गट्ठर में कितने बांध रखे हैं,
स्याही में घुल कलम से वो अब नहीं बहते।
हो तरंगित कागज़ों को वो नहीं रंगते,
जाने क्यों मुझसे अब अच्छे छंद नहीं रचते।।
बीज तो माटी में निज विलीन होते हैं,
किन्तु उनसे लय के अब अंकुर नहीं खिलते।
मनस की बेलों पर नव सुमन नहीं सजते,
जाने क्यों मुझसे अब अच्छे छंद नहीं रचते।।
मैं पुराने ऊन को फिर उधेड़ बिनती हूँ,
पर हठी ये गाँठ हाथों से नहीं खुलते।
उलझ खुद में वो नए ढांचे नहीं ढलते,
जाने क्यों मुझसे अब अच्छे छंद नहीं रचते।।
अंतः में अटखेलियाँ तो भाव करते हैं,
किन्तु बन अभिव्यक्ति वो मुझसे नहीं रिसते।
ले निरंतर रूप वो मुझसे नहीं बहते,
जाने क्यों मुझसे अब अच्छे छंद नहीं रचते।।
न कोई ज़ंजीर न बाधा की बंदी मैं,
मनस से क्यों उदित हो तब काव्य नहीं बंधते।
साहित्य के नव संस्करण का पथ नहीं गढ़ते,
जाने क्यों मुझसे अब अच्छे छंद नहीं रचते।।
शब्दों ने आज न जाने क्यूँ
भुरभुरा सा एक रूप धरा है।
सुबह से कमरे के कोने में
उन्होंने सबको घेर रखा है ।
अंतहीन नभ में उड़ने का
हठ ऐसा मन में पकड़ा है ।
आज कुछ अलग करने का
दृढ़ निश्चय किया पक्का है ॥
कविताओं की छंद बना जब
पतंग से मैंने उड़ाना चाहा ।
तो इनमें से कुछ आप ही
बिखर गए धागे से खुलकर ।
पद्य के रस में पीस कर जब
इत्र सा मैंने फैलाना चाहा ।
तो इनमें से कुछ स्वयं ही
लुप्त हुए बादल में घुलकर ॥
कहते हैं मुझसे कि एक
बच्चे की है आस से बनना ।
जो पक्षियों के पैरों में
छुपकर घोंसले बना लेते हैं ।
कहते हैं मुझसे कि एक
फकीर की है दुआ सा बनना ।
जो उजड़ती साँसों को भी
हौसला देकर जगा देते हैं ॥
अब उन्हें न ही किसी श्लोक
न किसी आयत में बंद होना है ।
अब उन्हें अपनी उपयुक्तता की
परिभाषा एक नई गढ़ना है ।
संचार के जो टूटे तार हैं
पुनः संलग्न उन्हें करना है ।
शायद उन्हें द्वेष पर फिर से
प्रेम का टूटा रत्न जड़ना है ॥
मैं कथा कहूँ दो प्रेमियों की
जो सदा संग ही विचरते थे ।
पर एक-दूजे से बिना मिले
निर्बल से, अाहें भरते थे ॥
एक शाम अनोखी की बात हुई
ईर्ष्या से प्रेमिका हताश हुई ।
सूची शिकायतों की खोली
प्रेमी से अथाह निराश हुई ॥
मायोसिन:
‘तू कहता तुझे मैं हूँ पसंद
फिर क्यूँ सबसे अाकर्षित तू?
तू अर्थ इस मैत्री का अब बता
है किस मिट्टी से निर्मित तू?’
एक्टिन:
‘अाकर्षण? अाखिर वो क्या है?
मेरे भाव तो सारे सम्मुख हैं ।
हे प्रिय! तू मेरी बात समझ
मैं तेरी ओर ही उन्मुख हूँ ॥
क्यों भूमिका मेरी न समझे तू?
मैं तो बस एक संबंधक हूँ ।
लक्ष्य तो मेरा उर्जा-जनन
बस पात्र रूपी मैं दर्शक हूँ ॥
तुझसे ही पाकर शक्ति मैं
दूजों तक हाथ बढ़ाता हूँ ।
फिर जोड़ के सारे कण-कण मैं
कोशिका का रूप बनाता हूँ ॥
कोशिकांगों को स्थिरता मिलती है
मेरे यूँ हाथ पकड़ने से ।
फिर क्यूँ उलाहना करती हो
तुम झूठ-मूठ आकर्षण के ?’
मायोसिन:
‘हर चाल मैं तेरी समझती हूँ
ये कहानियाँ मुझे तू न ही सुना !
सम्बन्धन के विचित्र अाड़ में तू
करता पूरा अपना सपना॥’
एक्टिन:
‘सपना मेरा तो तुम ही हो
इस बात को क्यों न समझती हो?
मैं सदा रहा हूँ साथ तेरे
फिर भी ये प्रश्न तुम करती हो !
कोशिकाओं का मैं ढाँचा हूँ
इस बात से हो न अवगत तुम?
कण-कण को जोड़ के ढाँचा बने
फिर क्यों मुझसे हो क्रोधित तुम?
संगठन का ही तो कार्य मेरा
मैं जोड़ू नहीं तो क्या मैं करूँ?
प्रयोजन जो मेरा कोशिका में
बिन हाथ धरे कैसे पूर्ण करूँ?’
मायोसिन:
‘समझती हूँ प्रयोजन मैं तेरा
पर द्वेष मैं कैसे दूर करूँ?
ये प्रेम जो तेरा समानांतर है
उसे छल नहीं तो क्या समझूँ?’
एक्टिन:
‘हे प्रिय समझो मेरी दुविधा को
ये छल नहीं, ये धर्म मेरा ।
संभाल के सबको रखना ही
है प्रथम लक्ष्य और कर्म मेरा ॥
मैं करूँ कुछ भी, जाऊँ मैं कहीं
न छोड़ूं तेरा मैं हाथ कभी ।
कोशिका-कोशिका या कोशिका-धरा
हर मिलन में तू ही साथ रही ॥
जब ऊर्जा मुझको पानी थी
तू ही तो संग मेरे खड़ी रही ।
पूरक हैं हम एक दूजे के
तुझ बिन मुझ में शक्ति ही नहीं ॥
समझता हूँ मैं तेरी ईर्ष्या को
तेरे प्रेम का भी अाभास करूँ ।
इसलिए तो तेरे संग ही मैं
कोशिका का रूप विन्यास करूँ?
अब उठो हे प्रिय! न रूठो तुम
कि व्यर्थ ये सारा क्रन्दन है ।
कोशिकाओं की क्षमताओं का
आधार हमारा बंधन है ॥
मायोसिन:
तुम ठीक ही कहते हो हे प्रिय!
कि असीम प्रेम हम में लय है ।
फिर भी न जाने क्युँ मुझमें
इसकी असुरक्षा का भय है ॥
एक्टिन:
वो प्रेम कहाँ भला प्रेम हुअा
जिसमे ईर्ष्या न व्याप्त हुई ।
तनाव प्रेम का जहाँ रुका
समझो, अवधि भी समाप्त हुई ॥
निराश न हो हे प्रिय तुम यूँ
ईर्ष्या से ऊर्जा निर्मित होगी ।
फिर ऊर्जा के हर कण-कण से
कोशिका अपनी विकसित होगी ॥
कि प्रेम ये अपना ऐसा है
जो विकास का मूल आधार बने ।
कि इसी प्रेम की दीवारों से
संगठित कोशिका का संसार सजे ॥
सन्दर्भ – यह कविता मैंने अपने शोध के नए विषय से प्रभावित होकर लिखी है। कोशिकाओं में कई प्रोटीन्स होते हैं जो कोशिका का ढाँचा (skeleton) बनते हैं। उनमें से दो प्रोटीन्स हैं: एक्टिन और मायोसिन। कोशिका में एक्टिन के फिलामेंट्स होते हैं जो मायोसिन के हेड से जुड़ते हैं । ATP की सहायता से मायोसिन का हेड एक निर्धारित दिशा में घूमता है और एक्टिन का फिलामेंट उसके साथ विस्थापित होता है। इस विस्थापन के से कोशिका से सिकुड़ती या फैलती है। कोशिका की कई प्रक्रियाएँ इसी घटना से नियंत्रित हैं।
इन दोनों प्रोटीन्स का मानवीकरण कर के मैंने यह काव्य लिखा है। यहाँ एक्टिन और मायोसिन को मैंने प्रेमियों के रूप में प्रस्तुत किया है। चूँकि प्रक्रियाओं के को पूर्ण करने के लिए एक्टिन(प्रेमी) कई दूसरे प्रोटीन्स से जुड़ता है, मायोसिन (प्रेमिका) एक दिन उससे नाराज़ हो जाती है। इसी ईर्ष्या में मायोसिन एक्टिन को शिकायत करती है कि वो ऐसा क्यों करता है। और एक्टिन इस व्यवहार को स्पष्ट करता है। ये कविता इन दोनों के इसी संवाद पर आधारित है।
जब चाँद छुपा था बादल में,
था लिप्त गगन के आँगन में,
मैं रात की चादर को ओढ़े
तारों से बातें करती थी ।
मैं नभ के झिलमिल प्रांगण से
सपनों के मोती चुनती थी ।
मैं आस की चादर बुनती थी ॥
जब सूर्य किरण से रूठा था,
प्रकाश का बल भी टूटा था,
मैं सूर्य-किरण के क्षमता की
गाथायें गाया करती थी ।
धागों के बाती बना-बना
जग का अँधियारा हरती थी ।
मैं आस की चादर बुनती थी ॥
जब हरियाली मुरझाई थी,
शुष्कता उनपर छायी थी,
मैं भंगूरित उन मूलों को
पानी से सींचा करती थी ।
पेडों की सूखी छाँवों में
मैं पौधे रोपा करती थी ।
मैं आस की चादर बुनती थी ॥
जब ईश्वर भक्त से रुष्ट हुआ,
कर्मोँ पर उसके क्रुद्ध हुआ,
निष्ठा की गीली मिट्टी से
विश्वास का पात्र मैं गढ़ती थी ।
मैं आस की कम्पित लौ से भी
श्रद्धा को प्रज्ज्वल करती थी ।
मैं आस की चादर बुनती थी ॥