अशांत व्यग्र अतृप्त है मन
भावों में कुंठित, लिप्त है मन ।
तम प्रबल आंधी सा बनकर
छीनता मन से है यौवन॥
किन्तु है एक चन्द्र ज्योति
नभ के माथे पर सुशोभित ।
उजाला बन वो तम से लड़ती
करती है कण-कण प्रकाशित ॥
दीप के लौ सी है उज्जवल
सूर्य किरणों में है पलती ।
जल क्षितिज वायु में बस कर
मन के तम को झट ही हरती ॥
मन कभी फिर प्रेरणा ले
सोचता कि उठ खड़ा हो ।
इन्द्रियों से अपनी कहता
“आज इस तम को हरा दो ॥
चन्द्रमा की श्वेत ज्योति
कर में आपने आज धर लो ।
पथ का है जो उजाला बनती
आलिंगन उसका आज कर लो”॥
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