चल पड़ा सन्यासी वो, अपनी ही एक राह पर
तलवे को नग्न कर और भूत को स्याह कर |
बढ़ चला वो अपने पग से मार्ग को तराशता
आज बस उम्मीदें ही बन रही उसका रास्ता ||
जरुरत का सामान कुछ, काँधे पे अपने डाल कर
लक्ष्य की चाहत में है, स्वयं को संभाल कर |
चल रहे हैं कदम उसके कंकडों को चूमते
कीचड से लथपथ हैं पूरे, अपने धुन में झूमते ||
राहें अब उसकी बनी हैं, वो एक पथिक है बस
सराहती उद्यम है उसका धुंध भी बरस-बरस |
घास में नरमी है छाई मिट्टी गर्मी दे रही
वादियाँ भी उसके इस आहट से प्रेरित हो रही ||
अर्पित किया है आज खुद को सृष्टि के रंग रूप पर
प्रकृति भी संलग्न उसमे, सौम्य किरणे, धूप कर |
तृप्ति की ज्योत आज कण कण से उदीयमान है
बिखरी हुई हवा में अब उसकी हर एक मुस्कान है ||
अपने पद की छाप छोड़, बढ़ रहा अपनी डगर
पार हो हर अर्चनें, राह जो आये अगर |
उत्साह अपनी कमर बांधे और साहस बांह पर
चल पड़ा सन्यासी वो, आज अपनी राह पर ||
August 14, 2013 at 5:49 pm
yaar surabhi….mujhe seriously lagta hai ki tere poems ek din school ke text book me honge aur teachers bachchon ko padhayenge….!! u r too gud at it yaar!! keep it up:)
August 14, 2013 at 5:57 pm
Wow!!! This is the biggest compliment i have ever received.. oblige hue hum to!! 🙂